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    TECH EXPLAINED: AI कितना पानी पी रहा है? नई स्टडी में हुआ चौंकाने वाला खुलासा, यहां जानिए पूरी जानकारी

    3 days ago

    Artificial Intelligence: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को आमतौर पर हम डिजिटल दुनिया की चीज मानते हैं लेकिन इसकी एक साइड ऐसी भी है जो सीधे पर्यावरण से जुड़ी हुई है. साल 2025 की एक नई रिसर्च में दावा किया गया है कि AI सिस्टम को चलाने में इस्तेमाल हो रहा पानी अब दुनिया भर में बोतलबंद पानी की कुल खपत से भी ज्यादा हो सकता है. इतना ही नहीं, AI से जुड़ा कार्बन उत्सर्जन इस साल न्यूयॉर्क जैसे बड़े शहर के बराबर बताया जा रहा है. अगर ये आंकड़े सच के करीब हैं तो AI की बढ़ती मांग पर्यावरण के लिए एक बड़ी चेतावनी बनकर सामने आती है.

    कैसे एआई करता है पानी की खपत

    आजकल आपने सुना होगा कि AI पानी पी रहा है या AI ने पानी खत्म कर दिया. असल में AI खुद पानी नहीं पीता बल्कि उसे चलाने वाली मशीनें और डेटा सेंटर्स बहुत ज़्यादा पानी इस्तेमाल करते हैं. यही वजह है कि यह मुद्दा चर्चा में है.

    जब ChatGPT, Google या कोई भी AI सिस्टम काम करता है तो उसके पीछे विशाल डेटा सेंटर्स चलते हैं. इन डेटा सेंटर्स में हजारों सर्वर लगे होते हैं जो लगातार गर्म होते रहते हैं. इन्हें ठंडा रखने के लिए कूलिंग सिस्टम का इस्तेमाल होता है और इसी कूलिंग में लाखों लीटर पानी खर्च हो जाता है. कई जगहों पर यह पानी सीधे वॉटर कूलिंग सिस्टम में जाता है तो कहीं बिजली बनाने के दौरान इस्तेमाल हुए पानी की खपत भी इसमें जुड़ जाती है.

    AI मॉडल को ट्रेन करने में भी बहुत ज्यादा एनर्जी लगती है. बड़ी-बड़ी कंपनियां जब नए AI मॉडल तैयार करती हैं तो हफ्तों या महीनों तक सर्वर फुल कैपेसिटी पर चलते हैं. इस दौरान न सिर्फ बिजली की खपत बढ़ती है बल्कि उसी बिजली को पैदा करने और सिस्टम को ठंडा रखने में भी भारी मात्रा में पानी खर्च होता है. एक अनुमान के मुताबिक, कुछ AI टास्क ऐसे हैं जिनमें एक सवाल का जवाब देने पर भी कुछ मिलीलीटर पानी की अप्रत्यक्ष खपत हो जाती है.

    रिसर्च क्या कहती है AI के पर्यावरणीय असर पर

    यह पीयर-रिव्यू स्टडी “The carbon and water footprints of data centres and what this could mean for artificial intelligence” नाम से प्रकाशित हुई है. इस शोध का नेतृत्व डच शोधकर्ता एलेक्स डी व्रीस-गाओ ने किया. स्टडी का फोकस उन डेटा सेंटर्स पर रहा जिन पर AI सिस्टम चलते हैं और जिनकी वजह से ऊर्जा और पानी की भारी खपत होती है. रिसर्च में यह भी माना गया है कि सटीक आंकड़े निकालना आसान नहीं है क्योंकि कंपनियां अपने पर्यावरणीय रिपोर्ट्स में AI और नॉन-AI वर्कलोड को अलग-अलग नहीं दिखातीं.

    अनुमान कैसे लगाए गए?

    सीधे आंकड़ों की कमी के चलते शोधकर्ताओं ने एक अलग तरीका अपनाया. उन्होंने गूगल, मेटा, अमेजन जैसी बड़ी टेक कंपनियों के डेटा सेंटर्स से जुड़े पर्यावरणीय रिपोर्ट्स, औसत उत्सर्जन आंकड़ों और पानी की खपत से जुड़े डाटा का विश्लेषण किया. इसके आधार पर यह अनुमान लगाया गया कि AI वर्कलोड को संभालने के लिए कितनी बिजली और पानी की जरूरत पड़ रही है.

    न्यूयॉर्क जितना कार्बन, बोतल वाले पानी से ज्यादा खपत

    स्टडी के मुताबिक, साल 2025 में सिर्फ AI सिस्टम से निकलने वाला कार्बन उत्सर्जन करीब 3.26 करोड़ से लेकर 7.97 करोड़ टन CO₂ के बीच हो सकता है. यह मात्रा न्यूयॉर्क सिटी जैसे बड़े महानगर के सालाना कार्बन फुटप्रिंट के बराबर मानी जा रही है. वहीं पानी की खपत का आंकड़ा और भी चौंकाने वाला है. AI से जुड़े डेटा सेंटर्स हर साल करीब 312 से 764 अरब लीटर पानी इस्तेमाल कर सकते हैं जो पूरी दुनिया में एक साल में इस्तेमाल होने वाले बोतलबंद पानी से भी ज्यादा है. इससे साफ है कि AI सिर्फ ऊर्जा की नहीं बल्कि पानी की सुरक्षा का भी बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है.

    ट्रेनिंग नहीं, रोजाना इस्तेमाल बन रहा है बड़ी वजह

    रिसर्च में एक अहम बात सामने आई है कि पर्यावरण पर सबसे ज्यादा असर AI मॉडल को ट्रेन करने से नहीं बल्कि उनके रोज़ाना इस्तेमाल यानी इन्फरेंस से पड़ता है. जब यूजर सवाल पूछते हैं इमेज या वीडियो बनवाते हैं और डिजिटल असिस्टेंट दिन-रात काम करते हैं तब डेटा सेंटर्स पर भारी लोड पड़ता है. करोड़ों रिक्वेस्ट्स के चलते बिजली और पानी की खपत तेजी से बढ़ती जाती है.

    बेहतर टेक्नोलॉजी, लेकिन असर कम नहीं हो रहा

    हैरानी की बात यह है कि डेटा सेंटर्स को ज्यादा एनर्जी-एफिशिएंट बनाने की कोशिशों के बावजूद कुल पर्यावरणीय असर कम नहीं हो पा रहा. वजह साफ है AI का इस्तेमाल इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि सुधार की सारी कोशिशें उसके सामने छोटी पड़ जाती हैं. आसान शब्दों में कहें तो टेक्नोलॉजी बेहतर हो रही है लेकिन उसका इस्तेमाल उससे भी ज्यादा तेज़ी से बढ़ रहा है.

    AI को सिर्फ सॉफ्टवेयर मानना अब सही नहीं

    इस स्टडी से दो बड़ी बातें निकलकर सामने आती हैं. पहली, AI को अब सिर्फ एक सॉफ्टवेयर की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. जिस तरह टेलीकॉम, एविएशन और भारी उद्योगों पर पर्यावरण से जुड़े नियम लागू होते हैं, उसी स्तर की निगरानी AI इंडस्ट्री पर भी होनी चाहिए. दूसरी अहम बात पारदर्शिता की है.

    रिसर्च में कहा गया है कि अगर कंपनियां AI वर्कलोड से जुड़ी ऊर्जा और पानी की खपत के आंकड़े साफ तौर पर साझा नहीं करेंगी तो सही नीति बनाना मुश्किल होगा. बिना स्पष्ट जानकारी के न तो संरक्षण संभव है और न ही भविष्य की सही योजना. यह स्टडी साफ संकेत देती है कि AI का भविष्य सिर्फ स्मार्ट होने से तय नहीं होगा बल्कि यह भी देखना होगा कि वह धरती के लिए कितना टिकाऊ साबित होता है.

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